Mumbai

क्या कहता है महायुति का यह जनादेश

नवीन कुमार
(वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक)

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपानीत महायुति को जिस तरह से जनादेश मिला है उस पर विपक्ष यानी महा विकास आघाड़ी (एमवीए) सवाल खड़ा कर रहा है। उसके सवाल में ईवीएम और मनी पॉवर के इस्तेमाल की बात भी शामिल है। कुछ लोगों को भी शंका है कि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ किया गया होगा। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही ईवीएम को प्रमाणपत्र दे दिया है कि इसमें किसी तरह की गड़बड़ी नहीं हो सकती है। ऐसे में विपक्ष के सामने भी यह चुनौती खड़ी हो गई है कि इस जनादेश से कैसे सीख ली जाए। सचमुच इस जनादेश में जनता की मूल भावना है जिससे यह स्पष्ट हो रहा है कि उसने अपनी राह चुन ली है। जनता के फैसले ने विपक्ष को परेशान कर दिया है कि जिसने लोकसभा चुनाव में उसके पक्ष में मतदान किया था अब उसने महायुति को कैसे पसंद कर लिया। लेकिन विपक्ष का गणित थोड़ा कमजोर है। उसने लोकसभा के उस अंतर को गंभीरता से नहीं लिया जो उसके हार का बड़ा कारण है। हालांकि, भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस ने बार-बार उस अंतर का जिक्र किया है। महायुति और एमवीए के बीच वोटों का अंतर 0.03 फीसदी ही था। इस अंतर को पाटने के लिए महायुति ने महिलाओं और किसानों के लिए लाभकारी योजनाओं को लागू किया। लाडली बहीण योजना के तहत 2.4 करोड़ महिलाओं को पैसे बांटे गए। लाभार्थी किसानों का गुस्सा विदर्भ, मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र में शांत रहा जबकि सोयाबीन और कपास के किसान सरकारी नीति के खिलाफ बोल रहे हैं। लेकिन बिजली में छूट के कारण मतदान के समय उनका झुकाव महा़युति की तरफ देखा गया। आरक्षण की मांग वाली आंधी में मराठा भी विपक्ष की झोली से बाहर निकल गए। यह वही स्थिति थी जब कांग्रेस-एनसीपी की सरकार ने मराठा और अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की घोषणा की थी। इसका लाभ कांग्रेस को नहीं मिला था बल्कि कांग्रेस-एनसीपी की सरकार गिर गई। इसके बाद 2019 में शिवसेना (यूबीटी), कांग्रेस और एनसीपी (एसपी) गठबंधन की सरकार बनी जिसे भाजपा ने एकनाथ शिंदे की मदद से गिरा दिया और महायुति की सरकार बन गई। बाद में इसमें एनसीपी में बगावत करके अजित पवार अपने गुट के साथ शामिल हो गए। उद्धव के नेतृत्व वाली सरकार गिराने के बाद भाजपा का हौसला बढ़ गया। हालांकि, लोकसभा चुनाव ने उसे निराश किया। लेकिन हरियाणा चुनाव ने उसे नई संजीवनी दी। इसके बाद भाजपा ने अपने सहयोगी पार्टी शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित गुट) के साथ नई चुनावी रणनीति पर काम किया। इसका उसे फायदा मिला। वैसे भाजपा की यह खासियत भी है कि वह अपनी सहयोगी पार्टी को पनपने नहीं देती है। राज्य में भाजपा और शिवसेना का 25 साल पुराना गठबंधन रहा है। शिवसेना के साथ गठबंधन बनाने से पहले भाजपा की राजनीतिक ताकत कम थी। लेकिन धीरे-धीरे उसने गठबंधन में रहते हुए शिवसेना से ज्यादा अपने सांसदों और विधायकों की संख्या बढ़ा ली। यह संभव हो सकता है कि भाजपा राष्ट्रीय पार्टी है तो उसके प्रति जनता का झुकाव बढ़ सकता है। लेकिन उसका फायदा शिवसेना को भी मिलना चाहिए था जो नहीं मिला। अगर उसी नजरिए से इस बार के विधानसभा चुनाव के नतीजे को देखें तो संख्या बल के आधार पर भाजपा अब उस स्थिति में पहुंच गई जिसे शिंदे और अजित के साथ गठबंधन बनाकर रहने की जरूरत नहीं है। शिंदे गुट में भाजपा के 9 उम्मीदवार तो अजित गुट में 4 उम्मीदवार जीते हैं। यह स्थिति भाजपा को अपने दम पर सरकार बनाने की ताकत देती है। लेकिन ऐसा नहीं किया। उसे पता है कि हिंदुत्व के नाम पर उद्धव की शिवसेना को और गर्त में ले जाना है तो शिंदे और अजित को फिलहाल साथ रखना मजबूरी है। भाजपा को अभी बीएमसी पर कब्जा करना है जिस पर

उद्धव की शिवसेना राज कर रही है। पिछले बीएमसी चुनाव में शिवसेना से भाजपा के दो नगरसेवक कम थे। बावजूद इसके भाजपा शिंदे के बिना बीएमसी पर कब्जा नहीं कर सकती। मुंबई में बाला साहेब के समर्पित शिवसैनिक ज्यादा हैं। इसलिए महायुति पूरी ताकत लगाकर भी माहिम की विधानसभा सीट पर उद्धव के उम्मीदवार को हराने में कामयाब नहीं सका। माहिम-दादर में ही बाला साहेब ने शिवसेना की स्थापना की थी। इसलिए शिवसैनिकों ने बाला साहेब के भतीजे और मनसे नेता राज ठाकरे के बेटे अमित ठाकरे को हराने में योगदान दिया। ठाकरे परिवार के किसी उम्मीदवार की यह पहली हार है। वरली से बाला साहेब के पोते और उद्धव के पुत्र आदित्य ठाकरे ने दूसरी बार जीत दर्ज की है। महायुति को इस बार जो जनादेश मिला वह चौंकानेवाला है। चौंकानेवाला इसलिए कि यह जनादेश महाराष्ट्र जैसे प्रगतिशील राज्य में मिला। यह संकेत थोड़ा खतरनाक भी माना जा रहा है। क्योंकि, महाराष्ट्र की अपनी सांस्कृतिक परंपरा है। मगर इस जनादेश में हिंदू तुष्टिकरण की झलक है। वैसे, कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण करती रही है और उसका उसे चुनावी लाभ मिलता रहा है, यह आरोप भाजपा भी लगाती रही है। लेकिन कांग्रेस की तरह भाजपानीत महायुति भी हिंदू तुष्टिकरण की राजनीति करे यह चिंतनीय बात है। हमारा देश और राज्य तो हिंदू बहुल है। भाजपा ने हिंदुओं को एकजुट करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित कई हिंदू संगठनों की मदद ली है। जबकि इसी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था कि भाजपा को संघ की जरूरत नहीं है। लेकिन लोकसभा में पछाड़ खाने के बाद भाजपा संघ की शरण में गई। संघ ने बता दिया कि उसके बिना भाजपा तरक्की नहीं कर सकती है। इस बार भाजपा ने एक हैं तो सेफ हैं और बंटेंगे तो कटेंगे के नारे को फैलाया। इस नारे को भाजपा ने अपने साथी शिंदे और अजित पर भी आजमाया। शिंदे ने अपनी शर्तों पर मुख्यमंत्री का पद छोड़कर उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली। महायुति को सत्ता तो मिल गई। लेकिन उसके सामने चुनौतियां कम नहीं है। सबसे बड़ी चुनौती तो यह है कि वोट पाने के लिए राज्य की जनता से जो वादे किए हैं उसे पूरा करना है। ये वादे लाभार्थी योजनाओं के तहत पूरे करने हैं। यह कोई नई परंपरा नहीं है। लेकिन कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर मुफ्त में लाभ देने की परंपरा है। अब ऐसी योजनाओं की वजह से देश और राज्य पर आर्थिक बोझ तो बढ़ते ही हैं। इसके साथ ही बेरोजगारी और महंगाई चरम को भी पार कर जाती है। महाराष्ट्र जैसे औद्योगिक राज्य में भी बेरोजगारी की बड़ी समस्या है। बेरोजगार युवक गलत दिशा में जा रहे है। ड्रग्स का कारोबार बढ़ रहा है। महंगाई भी हमारे सामाजिक ढांचा को बिगाड़ रहा है। अब देखिए जिस लाडली बहीण योजना के सहारे महायुति को सत्ता मिली है उस योजना के लिए धन जुटाना मुश्किल हो रहा है। नए मुख्यमंत्री फडणवीस ने कहा है कि बजट में प्रावधान करके महिलाओं को 2100 रूपए दिए जाएंगे। लाडली बहीण योजना की वजह से शिंदे की छवि बदल गई और उनके कहने पर राज्य की बहनों ने महायुति को जनादेश दिलाने में अहम भूमिका निभाई। अब महायुति पर बड़ी जिम्मेदारी है कि इस जनादेश का सम्मान पांच साल तक किस तरह से कर पाता है। वैसे, जनता तो होशियार है। वादाखिलाफी की वजह से वह अपने जनादेश को पलट सकती है।

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