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धुंए से घुटी रसखान की आंखें

धुंए से घुटी रसखान की आंखें

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

एक दिन रसिक कवि रसखान ने कहा था कि
आँखिन सों रसखान जबै ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारों।
कोटिन हू कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारों।
किन्तु नहीं जानता कि उन रसाल, प्रियाल, कचनार, कटहल, जामुन, बेल, मौलश्री, माधवी तथा यमुना के तट पर विराजमान अन्यान्य वृक्ष लताओं में से आज कितने मौजूद हैं। कहाँ है वह श्याम तमाल और कहाँ है वह ऐंठा कदंब। पर अभी पीलू है, हींस है, करील है, छोंकर है और इसीलिए उन बोलों की गूँज अभी बाकी है। तनिक ध्यान से सुनिये- "हे पीपल, और बरगद, नन्दनंदन श्यामसुन्दर हमारा मन चुरा कर चले गये हैं । हे कुरबक, नाग केसर, पुन्नाग और चम्पा, क्या तुम लोगों नेउन्हें देखा है? अरी सखी, इन लताओं से पूछो, ये अपने पति वृक्षों को भुजापाश में बांधकर आलिंगन किये हुए हैं।"

यमुना के बाएं तट पर जो महावन आज एक कस्बे के रूप में है, उस समय वह नन्दघाट के सामने के अगवन से लेकर भांडीरवन, बेतवन तथा लोहवन तक फैला हुआ था। यमुना के दाहिने तट पर गोवर्द्धन पर्वत के चारों और कामवन, वृंदावन, कोकिलावन, तालवन, कमोदवन, खदिरवन और मधुवन आदि फलों-फूलों से लदे बानवे वन-उपवन थे, जहां मोर, तोता, कोकिल आदि पक्षी कलनाद करते थे और हिरन चौकड़ी भरते थे। ऐसे कुंड और सरोवर थे, जिनका जल महात्माओं के हृदय के समान निर्मल था।

व्रज के बारह वन और चौबीस उपवनों की गाथा तो सारा संसार जानता है। यहां ध्रुव, दुर्वासा, अंगिरा और शांतनु तप करने आये थे । महात्मा बुद्ध ने यहाँ विहार किया था और ऋषभदेव की परंपरा के चौरासी सिद्ध ने यहां के तपोवनों में साधना की थी।

द्वापर के जमाने तक इन वनों की छाया में एक महत्वपूर्ण जीवन परम्परा का विकास हो चुका था, जिसे लोग ब्रज-संस्कृति कहते हैं, यह वनों के साहचर्य में ही पली और बढ़ी है। यहां के लोकजीवन में वृक्ष, वनस्पति, फल-फूल और पत्तों का बहुत गहरे तक समावेश है। वृक्षारोपण को यहां के शास्त्रकारों ने करोड़ों यज्ञ के बराबर पुण्य देने वाला बतलाया है। वनश्री के बिना ब्रजवासी की सौन्दर्य चेतना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मोरपंख, वनमाला, कनेर का कुंडल, फूलों से गुथी बेनी, फूलों की अंगिया ही तो कृष्ण और राधा का श्रृंगार है। कलियों की सेज, फूल से सजी मांग लोकमानस की सुकुमार कल्पना के प्रतीक हैं । बाँकेबिहारी के फूल बंगला का जिसने एक बार भी दर्शन किया है, वह क्या जीवन में फिर उसे भुला सकता है?

इन वृक्ष-वनस्पतियों ने कितने-कितने रोगों से हमारी रक्षा की है, इनका उपकार भूलकर क्या हम कृतघ्न नहीं कहे जायेंगे।

ब्रजवासियों ने अपने सुख को बढ़ाने और दुख को बाँटने के लिए इन वृक्षों और वनों को अपना सहभागी और स्वजन समझा है। जब विवाह होते है तो अम्मा दादी वृक्षों को न्यौता देने जाती हैं, गीत गाते हुए

पीपल, नीम, कचनार, बेल, मंदार, शिरीष ढाक और आम से हमारे कितने नाते हैं। नीम तो। आँगन की शोभा है, उसे कोई सतावे नहीं। मेरे आँगना में नीवरिया कौ पेड़ कौने सताई हरियल नीवरी जी। नीवरिया की ओट सुखद है। नीम पर निवौरी लगती है तो बेटी को पीहर की याद आती है- कच्चे नीम की निबौरी सामन वेग अइयो रे।”

मेंहदी रस-चेतना की प्रतीक है और बम्बे पर बेरिया तथा जंगल के करील की अपनी ही छटा है। भक्त कवि रसखान तो वृंदावन की करील कुंज पर “कोटि-कोटि कलधौत धाम न्यौछावर कर चुके थे। ब्रज लोकमानस की सौंदर्य चेतना में नागरपान की बेल, केसरक्यारी मरुआ की महक, रायचमेला, दोना -मरुआ श्यामतमाल, केवड़ा, चम्पे की बार, चमेली, मोतिया, बबूरिया तथा केले के खम्भ सजे हैं। बरुए की दूब, जमासा, हरे-हरे बास, जामुन और नींबू कदम-कदम पर महक रहे हैं। विवाह के गीतों की लोकनायिका खजूर पर चढ़कर देखती है कि बेटी के ससुराल वाले “लगते ही बस रहे हैं या दूर।

देखिए, शुक्र-शनिवार को सूर्यास्त के झुटपुटे में अम्मा दादी पीपल के नीचे दीपक जला कर लौट रही हैं। कार्तिक में पास-पड़ोस की सारी जनी इकट्ठी होकर तारों की छाँह में ही मना रही है – “तुरसा महारानी नमो-नमो, हरि की पटरानी नमो-नमो।” इधर श्रावण में गांव की छोरी आम की डाल पर झूला डाल कर कूक रही है- अरी जननी, तूने मुझे बागों में कूकने वाली कोयलिया का जनम क्यों नहीं दिया। “जनम जनन्ती री माय तैने चौ न जनमी बागन-विच कोयलिया।”

वह वृन्दावन अब वन कहाँ है? वहाँ तो अब मुंबई जैसी गगनचुम्बी इमारतें बन गई हैं।

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

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