क्या हरियाणा बन सकता है महाराष्ट्र?

नवीन कुमार
(वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक)
हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे ने भाजपा में नई जान फूंक दी है। भाजपा इस नई ऊर्जा के साथ दावा कर रही है कि महाराष्ट्र में भी हरियाणा वाली खुशी दिखने वाली है। हालांकि, इससे पहले लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भाजपा को गमगीन कर दिया था। हरियाणा की तरह महाराष्ट्र में भी भाजपा को कम सीटें मिली थी। बमुश्किल भाजपा ने 9 सीटें ही हासिल कर पायी जबकि 2019 में उसके 23 सांसद थे। भाजपा को ज्यादा सीटें मिलनी चाहिए थी। क्योंकि, शिवसेना और एनसीपी में विभाजन भी कराया गया था। यह स्थिति हरियाणा में नहीं थी। लेकिन हरियाणा के नतीजों के बाद भाजपा को लग रहा है कि आम जनता का मन बदल गया है जो मन लोकसभा चुनाव के दौरान था उसमें बदलाव आया है। यह बदलाव हरियाणा के रास्ते महाराष्ट्र में भी दिखने वाला है।
लोकसभा चुनाव में भाजपानीत महायुति और विपक्षी महा विकास आघाड़ी (मविआ) के वोटों के अंतर के प्रतिशत का आंकड़ा बहुत कम था यानी कि 0.3 फीसदी का अंतर था। महायुति को 2 लाख वोट कम मिले थे। अगर भाजपा इस बार विधानसभा चुनाव में इस आंकड़े में उलटफेर करना चाहे तो आसानी से हरियाणा पैटर्न दोहरा सकती है। लेकिन इस मामले में मविआ भी खुद को कमजोर कैसे रख सकता है। इसके लिए उसकी कवायद जारी है। इसलिए महायुति के सामने भी चुनौतियां कम नहीं हैं। बावजूद इसके भाजपा के साथ उसके सहयोगी दल शिवसेना (एकनाथ शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित पवार गुट) भी उत्साहित हैं। उनका भी मानना है कि हरियाणा ने महाराष्ट्र में जीत का रास्ता आसान कर दिया है। भाजपा दावा कर रही है कि हरियाणा में पीएम नरेंद्र मोदी का जादू चला है और कांग्रेस नेता राहुल गांधी कमजोर पड़ गए हैं। लेकिन कांग्रेस ने स्पष्ट किया है कि कांग्रेस को भाजपा से 0.6 फीसदी ही कम वोट मिले हैं और इसकी समीक्षा की जा रही है। उनके साथ किसान और दलित हैं।
हरियाणा में भाजपा की जीत को जिस तरह से महायुति के घटक दल महाराष्ट्र के समर्थन में बता रहे हैं उसे कांग्रेस अलग नजरिए से देख रही है। कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि हरियाणा की तुलना महाराष्ट्र से नहीं की सकती है। कांग्रेस की दलील है कि हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों का मिजाज अलग है। यह कहने की बात है कि हरियाणा में भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग का प्रयोग सफल तरीके से किया है। वहां के किसान और दलित ने भाजपा पर भरोसा जताया है। लेकिन कांग्रेस कह रही है कि महाराष्ट्र के किसान और दलित की स्थिति अलग है और भाजपा के प्रति उनका गुस्सा बरकरार है। इस गुस्से का असर महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में दिखेगा। अगर कांग्रेस का आंकलन सही है तो भाजपा के लिए महाराष्ट जीतना बहुत आसान नहीं होगा।
यह सच है कि चुनावी राजनीति में एक राज्य की हवा दूसरे राज्य को प्रभावित करती है। इसलिए हरियाणा पैटर्न की हवा महाराष्ट्र में चलाई जा रही है। लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि हरियाणा एक छोटा राज्य है और महाराष्ट्र उसके अनुपात में तीन गुणा से भी ज्यादा बड़ा है। विधानसभा सीटों की संख्या देखा जाए तो हरियाणा में 90 सीटें हैं और महाराष्ट्र में 288 सीटें हैं। सीटों का यह अंतर बता रहा है कि हरियाणा में भाजपा ने जितनी मेहनत की थी महाराष्ट्र में उसे उससे कई गुणा ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। यह मेहनत महाराष्ट्र की जनता के मन को बदलने के लिए करनी पड़ेगी। जब तक जनता का मन नहीं बदलेगा तब तक महाराष्ट्र में हरियाणा पैटर्न नहीं दिखेगा। वैसे, जनता के मूड को बदलना भी आसान नहीं है। राजनीति की वजह से महाराष्ट्र के समाज में कई तरह की स्थितियां बनी हुई हैं। सामाजिक भेदभाव के साथ जाति और धार्मिक भेदभाव भी राजनीतिक विद्वेष के साथ है। भाजपा ने हिंदुत्व का मुद्दा बना रखा है।
लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा ने मविआ पर खुलकर आरोप लगाया कि उसे मुस्लिमों के खुले समर्थन की वजह से ज्यादा सीटें मिली। लेकिन मविआ ने भी पलटवार किया है कि भाजपा हिंदू और मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने का काम कर रही है। यह राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप है। लेकिन हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत नजरिए भी हैं जो मतदान में ही दिखते हैं। इससे राजनीतिक समीकरण बनते-बिगड़ते हैं। यही वजह है कि एक्जिट पोल के भी पोल खुल जाते हैं। हरियाणा के साथ जम्मू-कश्मीर में यह एक तमाशा के रूप में दिखा है। अगर एक्जिट पोल सही होता तो भाजपा के उत्साह में भी तब्दीली दिख जाती। लेकिन भाजपा ने जिस तरह की रणनीति के साथ काम किया है उससे भी उसका उत्साह बढ़ा हुआ है। हरियाणा को लेकर आरएसएस ने भी अपना दावा पेश किया है। उसका कहना है कि उसने बिखरे हिंदुओं को एकजुट करने का काम किया और उसका नतीजा उसे हरियाणा में दिखा है। महाराष्ट्र में भी आरएसएस की ओर से इस तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। मराठा आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता मनोज जरांगे ने खुले तौर पर भाजपा के प्रति नाराजगी जाहिर की है। इसलिए भाजपा ने मराठाओं की नाराजगी से होने वाले नुकसान से बचने के लिए उसने राज्य के छोटे दलों के साथ ओबीसी की जातियों को अपने पाले में लाने का काम शुरू कर दिया है। ऐसा माना जा रहा है कि ओबीसी का झुकाव मोदी की तरफ है। इसलिए उसके हित का ज्यादा ध्यान रखना जरूरी है और धनगर समाज को भी मनाया जा रहा है। 19 ओबीसी जातियों और उपजातियों को केंद्र की पिछड़ा सूची में शामिल किया गया है और शिंदे सरकार ने राज्य अनुसूचित जाति आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के फैसले के साथ ओबीसी क्रीमीलेयर की लिमिट को 8 लाख से बढ़ाकर 15 लाख करने की भी सिफारिश की है।
महाराष्ट्र में विधानसभा के लिए चुनावी शतरंज बिछी हुई है और इसमें भाजपा के देवेंद्र फडणवीस, शिवसेना (शिंदे गुट) के एकनाथ शिंदे और एनसीपी (अजित गुट) के अजित पवार के साथ विपक्ष की ओर से कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) के उद्धव ठाकरे और एनसीपी (शरद पवार गुट) के शरद पवार की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। सबसे बड़ा सवाल फडणवीस और शिंदे को लेकर है। इस बार भाजपा मुख्यमंत्री शिंदे के चेहरे पर चुनाव लड़ने जा रही है तो फडणवीस पर फिर से सत्ता वापसी की जिम्मेदारी है। अगर इसमें दोनों चूक गए तो भाजपा और शिवसेना (शिंदे गुट) की राजनीति में काफी उलटफेर हो सकती है। अजित पवार को लेकर ज्यादा बात इसलिए नहीं हो रही है क्योंकि उन्हें पहले से ही कमजोर मान लिया गया है। उनकी कमजोरी लोकसभा चुनाव में भी दिखी है। महायुति में सीटों के बंटवारे में भी अजित गुट को ज्यादा लाभ नहीं दिख रहा है। यह लगातार चर्चा हो रही है कि अजित गुट से भाजपा को नुकसान हो रहा है इसलिए उसे कम से कम सीटें दी जाए ताकि महायुति को फायदा हो सके। मगर अजित गुट भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रह रहा है जिससे वह दबाव की रणनीति पर काम कर रहा है। उधर फडणवीस और शिंदे को भी अग्निपरीक्षा से गुजरना है। इसलिए ये दोनों ऐसे फैसले लेने को भी तैयार हैं जिससे अग्निपरीक्षा में पास होना आसान हो जाए। विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले लाभकारी योजनाओं के नाम पर सरकारी स्तर पर फैसलों की रेवड़ियां भी बांटी जा रही है। इधर विपक्ष में कांग्रेस को सबसे बड़ी चुनौती का सामाना करना पड़ रहा है। हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में उसे साबित करना है कि राहुल गांधी को जनता ने नकारा नहीं है। हालांकि, करो या मरो की स्थिति शरद पवार के साथ उद्धव ठाकरे के सामने भी है। महाराष्ट्र में राजनीतिक समीकरण तब तक बदलते रहेंगे जब तक विधानसभा चुनाव नहीं हो जाते हैं। इसलिए राजनीतिक दलों ने उससे पहले अपने-अपने समीकरण के हिसाब से लाडकी बहीणा योजना के अलावा किसानों के साथ मराठा और ओबीसी के आरक्षण के मुद्दे को भी चुनावी जीत का हथियार बना रखा है।